गांधी बिकाऊ है...!
चौंकिए मत गांधी अप-मार्केट है, लिहाजा बिकाऊ है. गांधी के नाम पर खबरें बिकती हैं, फिल्में बिकती हैं, साहित्य बिकता है. धोती, रूमाल, तौलिए से लेकर झोले तक सब कुछ बिकता है. गांधी ब्रांड हो गया है. सचिन, शाहरुख, मल्लिका, एश्वर्य से बड़ा, अपने बिग बी से भी बड़ा.
मोबाइल पर एक मित्र का एसएमएस आया. सवाल- 'सिमिलरिटी बिट्विन महात्मा गांधी एंड मल्लिका सहरावत'. जवाब- 'दोनों ने वस्त्रों का त्याग कर दिया. एक ने देशहित में, दूसरी ने करोड़ो देशवासियों के हित में'.
निश्चित ही गांधी सिंबल है देशभक्ति का. जब देशभक्ति का स्वरूप सिर्फ एसएमएस या विजुअल्स तक सिमटकर रह गया है. ऐसे में उस सिंबोल का भी बाजार तक उतर आना लाजिमी है. खुले रहस्य की तरह यह फंडा एकदम साफ नजर भी आता है. आज गांधीजी बाजार में खड़े हैं, स्टैच्यू की तरह. उनके कंधे पर सजाकर कुछ भी बेचा जा सकता है. डाक विभाग के लिए गांधी टिकट का ब्रांड है. रिजर्व बैंक के लिए तो गांधी घोषित रूप से ब्रांड है. हर नोट में गांधी है. उनका हर गांधी बाजार के लिए मुद्रा की गारंटी है.
गांधीजी ने सत्याग्रह किया, वह गांधीवाद था. आज मुन्नाभाई गांधी का अवतार है. वह गांधीगीरी करता है. गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा, आज नमक बेचने वाला मॉडल या सिने कलाकार गांधी हो गया है. गांधीजी ने खादी के लिए सबको प्रेरित किया, आज खादी ग्रामोद्योग अघोषित गांधी है. बाजार सचमुच महाबली है. अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है. उसके लिए हर चीज या तो प्रोडक्ट है या फिर ब्रांड. वह गांधी को किसी भी रूप में अवतरित कर सकता है. बैलेंस शीट में इजाफे का यह फंडा है भी एकदम सालिड. जादू की झप्पी की तरह.
इस दौर में गांधी का मतलब सिर्फ गांधी नहीं है. वह झकास है, चंकी है, और भी जाने क्या-क्या है. गांधीजी के नाम पर कुछ भी बेचा जा सकता है. गांधीवाद को ग्लैमर के रैपर में लपेट दिया जाय तो वह गांधीगीरी में तब्दील हो जाता है. सत्य, अहिंसा, बंधुत्व के विचार मामूगीरी हो गए हैं. गांधी पर बनी फिल्मों के लिए दर्शक बा-मुश्किल जुटे, मगर मुन्नाभाई को देखने के लिए एडवांस बुकिंग हुई.
गांधी को न नोबेल मिला, न भारत रत्न या काई और लायक सम्मान. कभी-कभी लगता है कि गांधीजी एक जगह चूक गए. उनके पास सर्किट नहीं था. वरना गांधीजी भी मुन्नाभाई की तरह हाथों-हाथ लिए जाते. गांधीवाद से ज्यादा गांधीगीरी लोकप्रिय हो रही है. वजह साफ है; यथार्थ से ज्यादा फंतासी सुकून देती है. गांधी का स्वदेशी आधुनिक दौर के सुविधाभोगी जीवनचर्या में बाधक है. मगर मुन्नाभाई रियल इंटरटेनमेंट है. वह जनता से किसी त्याग की उम्मीद नहीं करता. गांधी ने खुद पर प्रयोग किए, लेकिन मुन्नाभाई जो कहता-करता है, बस रील लाइफ में. रियल लाइफ में मुन्ना 'भाई' है. सुना है अब.... मुन्नाभाई चले अमेरिका.
कुछ ऐसा दिखाई दे रहा है- गांधीवाद आउट, गांधीगीरी इन. यानी गांधीजी आउट, मुन्नाभाई इन.
वाकई, तुम ग्रेट हो मुन्नाभाई!
मोबाइल पर एक मित्र का एसएमएस आया. सवाल- 'सिमिलरिटी बिट्विन महात्मा गांधी एंड मल्लिका सहरावत'. जवाब- 'दोनों ने वस्त्रों का त्याग कर दिया. एक ने देशहित में, दूसरी ने करोड़ो देशवासियों के हित में'.
निश्चित ही गांधी सिंबल है देशभक्ति का. जब देशभक्ति का स्वरूप सिर्फ एसएमएस या विजुअल्स तक सिमटकर रह गया है. ऐसे में उस सिंबोल का भी बाजार तक उतर आना लाजिमी है. खुले रहस्य की तरह यह फंडा एकदम साफ नजर भी आता है. आज गांधीजी बाजार में खड़े हैं, स्टैच्यू की तरह. उनके कंधे पर सजाकर कुछ भी बेचा जा सकता है. डाक विभाग के लिए गांधी टिकट का ब्रांड है. रिजर्व बैंक के लिए तो गांधी घोषित रूप से ब्रांड है. हर नोट में गांधी है. उनका हर गांधी बाजार के लिए मुद्रा की गारंटी है.
गांधीजी ने सत्याग्रह किया, वह गांधीवाद था. आज मुन्नाभाई गांधी का अवतार है. वह गांधीगीरी करता है. गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा, आज नमक बेचने वाला मॉडल या सिने कलाकार गांधी हो गया है. गांधीजी ने खादी के लिए सबको प्रेरित किया, आज खादी ग्रामोद्योग अघोषित गांधी है. बाजार सचमुच महाबली है. अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकता है. उसके लिए हर चीज या तो प्रोडक्ट है या फिर ब्रांड. वह गांधी को किसी भी रूप में अवतरित कर सकता है. बैलेंस शीट में इजाफे का यह फंडा है भी एकदम सालिड. जादू की झप्पी की तरह.
इस दौर में गांधी का मतलब सिर्फ गांधी नहीं है. वह झकास है, चंकी है, और भी जाने क्या-क्या है. गांधीजी के नाम पर कुछ भी बेचा जा सकता है. गांधीवाद को ग्लैमर के रैपर में लपेट दिया जाय तो वह गांधीगीरी में तब्दील हो जाता है. सत्य, अहिंसा, बंधुत्व के विचार मामूगीरी हो गए हैं. गांधी पर बनी फिल्मों के लिए दर्शक बा-मुश्किल जुटे, मगर मुन्नाभाई को देखने के लिए एडवांस बुकिंग हुई.
गांधी को न नोबेल मिला, न भारत रत्न या काई और लायक सम्मान. कभी-कभी लगता है कि गांधीजी एक जगह चूक गए. उनके पास सर्किट नहीं था. वरना गांधीजी भी मुन्नाभाई की तरह हाथों-हाथ लिए जाते. गांधीवाद से ज्यादा गांधीगीरी लोकप्रिय हो रही है. वजह साफ है; यथार्थ से ज्यादा फंतासी सुकून देती है. गांधी का स्वदेशी आधुनिक दौर के सुविधाभोगी जीवनचर्या में बाधक है. मगर मुन्नाभाई रियल इंटरटेनमेंट है. वह जनता से किसी त्याग की उम्मीद नहीं करता. गांधी ने खुद पर प्रयोग किए, लेकिन मुन्नाभाई जो कहता-करता है, बस रील लाइफ में. रियल लाइफ में मुन्ना 'भाई' है. सुना है अब.... मुन्नाभाई चले अमेरिका.
कुछ ऐसा दिखाई दे रहा है- गांधीवाद आउट, गांधीगीरी इन. यानी गांधीजी आउट, मुन्नाभाई इन.
वाकई, तुम ग्रेट हो मुन्नाभाई!
3 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा, विशेष जी. बेहतर प्रयास के लिए साधुवाद. प्रयोग जारी रखिए.
स्वागत है आपका।
:) अच्छा लिखा है, जारी रहें।
अच्छा है..मगर आप गाँधी के सर्किट को भूल कैसे गये.. आज तक उसके नाती पोते हमारे सर पर सवार हैं.. वो कौन है जो यू पी में रोड शो कर रहा है.. और आप कह रहे हैं कि उनके पास सर्किट था ही नहीं.. ?
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