सभी ब्लागियों को खुला पत्र
प्रिय साथियो,
सभी तक सलाम पहुंचे. बाजार प्रकरण पर यूं तो काफी चर्चा हो चुकी है, पर इस बीच कुछ निजी और कुछ कार्य संबंधी व्यस्तताओं के कारण मेरी बात आप तक नहीं पहुंच सकी. देर से ही सही अपनी बात आप तक रखने के लिए यह पत्र लिखा जा रहा है. इस पर पूर्वाग्रह मुक्त सहमति व असहमति की पर्याप्त गुंजाइश है.
आगे बढ़ने से पहले यह स्परूट कर देना जरूरी है कि न तो मैं नारद भक्त हूं, न मैंने कोई चंदा दिया है और न इस आर्थिक स्थिति में हूं. यह भी उल्लेख योग्य है कि बाजार समर्थक खेमे में मेरी कोई गूढ़ दिलचस्पी नहीं है. इस बीच दर्जनों पोस्टों में जो कहा गया, उसके अर्थ से अधिक मंतव्य पर ध्यान दिया जाना जरूरी है. कई ब्लॉग मित्रों के उलाहना देने पर अब अपनी बात लिखने का मन बनाया है.
मित्रो, बाजार की जिस पोस्ट को लेकर हल्ला मचा, वह अवश्यंभावी था. लिफाफे देखकर ही मजमून समझ में आ गया था. नारद व उसके पुर्जों की तरफ से पिछली पोस्टों और प्रतिक्रियाओं में जैसा बताया गया कि शिकायत मिलने पर उस पोस्ट को हटाने के लिए कहा गया. न हटाए जाने और नारदवाणी नजरंदाज करने के बाद ब्लॉग को फीड से बेदखल कर दिया गया. बतौर नियम यह कार्रवाई जायज हुई. मगर उसके बाद जो ध्रुवीकरण की श्रृंखला चली वह न तो हिन्दी के लिए किसी काम की थी और न इससे किसी को व्यक्तिगत रूप से कोई फायदा पहुचा हो शायद.
कुछ नारद के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने मुनि के विभिन्न दरबारों में नियमित हाजिरी लगाते रहे. हर बार वही एकरस समर्थन की जुगाली करते रहे. नारद खेमा पुष्ट होता गया. वैसे भी समाज में शासन के विरोध में जाने या आंदोलन करने की परंपरा कम ही रही है. फिर लम्पट मध्य वर्ग से क्रांति की अपेक्षा रखना अंधे कुएं में खुशी-खुशी कूदने जैसा है. दूसरी श्रृंखला रही कथित स्वतंत्रता के झंडाबरदारों की. इस झंडे के नीचे गिने-चुने स्वघोषित भगत सिंह जमा हुए, असेंबली में बम फेंकने के लिए. प्रगतिशील, क्रांति के पक्षधर, बुद्धिजीवी, विवेकशील, तर्कशील आदि-आदि. उनकी सभी खूबियां मुझे निर्विवाद स्वीकार हैं. उनके बम के धमाके की गूंज ने एकबारगी तो नारद के सुर भी विचलित कर दिए थे.
बहरहाल, ध्रुवीकरण का मारक खेल पर्याप्त समय तक चला और दोनों खेमों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. बात सही गलत की न रहकर गुटों की प्रतिष्ठा से आ जुड़ी. जिस तरह हॉस्टल में रहने वालों के बीच व्यवहार होता है. अपना साथी, चाहे सही हो या गलत, उसके लिए खून बहाने में देरी नहीं होती. कहीं से सत्ता की धमक आई तो कहीं से असंतुष्टि की बू. स्वछंदता और स्वतंत्रता में फर्क न कर पाने वालों से सार्थक चर्चा की उम्मीद रखने का कोई औचित्य नहीं बनता. प्रगतिशीलता के पुजारी ढोल बजाते रहे, चाहे कोई सुने या न सुने.
स्पष्ट कर दूं कि नारद की कार्रवाई सही है या गलत, इससे महत्वपूर्ण यह है कि संवेदनशील मुद्दों पर किस तरह पेश आना चाहिए. इस बीच जो कुछ घटित हुआ, उसे अप्रिय मानकर त्याज्य नहीं समझा जाय. बाजार के बहाने कई नंगे सच उजागर हुए हैं. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जरूरी है कि असहमतियों की गुंजाइश रहे. व्यवस्था या तंत्र का अपेक्षानुरूप आचरण न होने पर उससे असंतुष्टि जायज है, मगर सवाल यह है कि किसी पर तो हमें आस्था लानी ही होगी. हर किसी से असंतुष्टि व असहयोग तो फिर हिटलरीकरण की ओर ही ले जाएगा. नारद छोड़कर जो गए, उनका निपट जाना अच्छा ही है. पलायनवादी का न रहना ही ठीक है, चाहे वह कोई भी हो.
बहरहाल, पत्र काफी विस्तार ले चुका है. फिलहाल इतना ही. यहां जितना लिखा है, उससे ज्यादा ही समझें. अनुशासन में रहकर जितना लिखा, वह आपके सामने है. नारद से अनुरोध है कि मेरी धृष्टताओं को नादानी मत समझें. क्रांति करने ब्लॉग जगत में पहुंचे साथियों से भी विनम्र अनुरोध है कि मुझे वर्ग शत्रु वाले ब्लॉगरोल में न डालें.
अंत में, किसी शायर की ये पंक्तियां याददाश्त के सहारे पेश हैं ...
तुमने दिल की बात कह दी आज ये अच्छा हुआ,
हम तुम्हें अपना समझते थे बड़ा धोखा हुआ.
शेष फिर,
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ-
विशेष
7 टिप्पणियां:
आप जो कह रहे हैं वो एकदम सच है वैसे भी धुरविरोधी नाम का शख्स छिप कर लिखने वाला दब्बू था और एकदम कूडा लिखता था
बाकी के गाली बकने बाले लोगों के जाने की राह देख रहे हैं हम लोग
नारद-बाज़ार प्रकरण पर दो आलेख अब तक संतुलित लगे, एक आपका और एक अनामदास का। संयत रहकर लिखने के लिए धन्यवाद।
बढ़िया!!
इ मनोजवा कौन है भाई, जबै धुरविरोधी नाम का अरथ ही न जाने है तौ ऐसन टिप्पणी काहे करत है!
विचार सही किया देर से ही सही
अच्छा लिखा है संतुलित है।
इस विवाद का सही विश्लेषण किया आपने।
विशेष जी, आप खामख्वाह विवाद में कूद गईं.
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