गुजरात इस देश में अचानक पैराशूट से नहीं उतरा.
कल मोहल्ले में घुसते ही पाया कि सब मुझे ही घूरे जा रहे हैं.
कुछ आगे चलने पर पता चला कि वहां कूड़ानामा बांचा गया था. हर नुक्कड़ पर स्वयंभू डाक्टर आला लेकर चेक करने बैठे हुए थे. कुछ और आगे बढ़ने पर ठेकेदार टाइप लोगों से मुक्का-लात हो गई. किसी तरह निकलकर वापस आने के बाद लगा मानो बड़े बेआबरू होकर निकले तेरे कूचे से हम.
चलो जान बच गई भई. मगर आज के इस दुस्साहस के बाद लगता है कि अगली मर्तबा मोहल्ले में हेलमेट पहनकर घुसना होगा.
आजकल देखा जा रहा है कि अपनी बकवास (माफ कीजिए विचारों) को कहने के लिए व्यक्ति खुद को स्वतंत्र मानता है और दूसरे की रचना उसे विशुद्ध कूड़ा शास्त्र नजर आती है. कूड़ा विशेषज्ञ कृपया यह बताएं कि सम्पूर्ण विश्व में किस लेखक का सम्पूर्ण सृजन सम्पूर्ण है. किसी के लेखन में कालजयी रचनाएं ज्यादा सम्मिलित हैं तो किसी के लेखन में कुछ कम. चेखव सरीखे कुछ सृजकों को छोड़ तब आगे बात करें क्योंकि आप पाएंगे कि भले ही उनकी कहानियों को किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं, मगर वे भी आम आदमी के समझने के लिए आसान नहीं हैं.
बेशक हर किसी को अपनी राय रखने का हक होना चाहिए, मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आप किसी की खिल्ली उड़ाएं यह सही नहीं ठहराया जा सकता. मेरे लिए यह व्यक्तिगत उपलब्धि हो सकती है कि मुझे कूड़ेदार हिन्दी के मुरीद अध्यापक का तमगा मिला और मेरे ब्लॉग को गुजरात की मानद उपाधि मिली. इसके लिए मोहल्ला विश्वविद्यालय के कुलपति जी को साधुवाद.
मेरा विचार है कि गुजरात इस देश में अचानक पैराशूट से नहीं उतरा. वह सदियों से यहीं था, जिन्न की तरह चिराग में बंद. खुद को पुष्ट करता रहा और अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर बाहर आ गया. अपना काम कर चुकने के बाद फिर छिप बैठा. रह-रहकर मध्य प्रदेश में नजर आने लगा और अब पंजाब में असर दिखा रहा है. उसके लिए वह मानसिकता भी तो जिम्मेदार है जो उसे उकसाती है. शरीर में अगर कोढ़ हो तो उसे दिखा-दिखाकर खुजलाना नादानी ही होगी. क्या यह बेहतर न होगा कि उसका इलाज करने के साथ तब तक उसे थोड़ा ढककर रखा जाय ताकि बीमारी बढ़ न जाय.
कुलपति जी की स्वतंत्रता की भावनाओं की मुझे कद्र है, मगर जब वह भावना स्वच्छंदता की हद तक पहुंचे तो जाहिर है कि किसी का भला नहीं होने वाला. कुलपति जी ने मुझे कूड़ेदार हिन्दी का अध्यापक बनाया है. वे चाहें तो मुझे हिन्दी विभाग से निकालकर कूड़ा अनुभाग में शिफ्ट कर सकते हैं, क्योंकि वे स्वतंत्र हैं.
3 टिप्पणियां:
साधो, भैय्या ये कुलपति नहीं कुलच्छनपति हैं.
कुछ लोग गुजरात को देख देख कर खुजा खुजा कर खुजैले हो गये हैं. अब खुजाना इनकी आदत ही बन गयी है.
जो मजा ना दाल भात खाने में, वो मजा खाज को खुजाने में.
इसीलिये तो अगर कोई दाल -भात खाना चाहता है तो ये खुजैले बोलते है कि भाई खाओ मत, खुजाओ.
कूड़ा अनुभाग में नियुक्त होने के लिये बधाई. पर साधो, इनके दिमाग का कूड़ा साफ नहीं कर सकोगे.
विशेष जी,अपनी बात कहने की आजादी सब को है लेकिन क्या हम बिना पक्षपात के बोलते हैं? यदि कोई दूसरा विरोध करे तो हमे परेशानी होने लगती है। कही ऎसा तो नही कि आज हम सभी पूर्वाग्रहो से ग्रसित हो चुके हैं।इस पर सभी को विचार करना चाहिए।
हमारा बच्चा कहता है कि जिसको जितनी अकल होती है उतनी बात करेगा।
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